ठिकाना ढूंढ लेती
मेरी खामोशियों में भी फसाना ढूंढ लेती है ,
बड़ी शातिर है ये दुनिया बहाना ढूंढ लेती है ,
जिद किए बैठी है चकनाचूर करने को,
मगर हर आंख फिर सपना सुहाना ढूंढ लेती है,
न चिडि़या की कमाई है न कारोबार है कोई,
वो केवल हौसले से आबोदाना ढूंढ लेती है,
समझ पाई न दुनिया मस्लहत मंसूर को अब तक,
जो सूली पर भी हंसना मुस्कुराना ढूंढ लेती है,
उठाती है जो खतरा हर कदम पर डूब जाने का,
वही कोशिश समन्दर में खजाना ढूंढ लेती है,
जूनून मंजिल के राहों में बचाता है भटकने से,
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूंढ लेती......
Regards
Alok Raj
बहुत बढिया रचना है।बधाई
ReplyDeleteउठाती है जो खतरा हर कदम पर डूब जाने का,
वही कोशिश समन्दर में खजाना ढूंढ लेती है,
जूनून मंजिल के राहों में बचाता है भटकने से,
मेरी दीवानगी अपना ठिकाना ढूंढ लेती......
aapne mere blogs padhi. thanks for you.
ReplyDeletewho r u?
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